मुरलिया ऐसैं स्याम रिझाए।
नंद-नँदन के गुन नहिं जानति, अति स्रम तैं इहिं पाए।।
तुव ब्रत को फल उहै दिखायौ, चीर कदंब चढ़ाए।
कह्यौ कहा सब वैसेहिं आवहु, जुवतिनि लाज छँड़ाए।।
तब दै चीर अभूषन बोले, धनि-धनि सबद सुनाए।
सुनहु सूर ब्रजनारी भोरी, इतनेहिं हरष बढ़ाए।।1341।।