मुख-छबि देखि हो नँद-धरनि।
सरद निसि कौ अंसु अगनित इंदु आभा हरनि।
ललित श्री गोपाल-लोचन-लोल-आँसू-ढरनि
मनहुँ बारिज बिथकि विभ्रम, परे पर-बस परनि।
कनक-मनि-मय-जटित-कुंडल-जोति जगमग करनि।
मित्र–मोचन मनहुँ आए, तरल गति द्वै तरनि।
कुटिल कुंतल, मधुप मिलि मनु, कियौ चाहत लरनि।
बदन कांति बिलोकि सोभा सकै सूर न बरनि।।351।।