माधौ जू, मन हठ कठिन परयौ।
जद्यपि विद्यमान सब निरखत, दु:ख सरीर भरयौ
बार-बार निसि-दिन अति आतुर, फिरत दसौं दिसि धाए।
ज्यौं सुक सेमर-फूल बिलोकत, जात नहीं बिनु खाए।
जुग-जुग जनम, मरन अरु बिछुरन, सब समुझत मत-भेव।
ज्यों दिनकरहिं उलूक न मानत, परि आई यह टेव।
हौं कुचालि मति-हीन सकल विधि, तुम कृपालु जग जान।
सूर मधुप निसि कमल-कोप-वस, करौ कृपा-दिन-भान।।100।।