माधौ जू मन सबही विधि पोच -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग





माधौ जू, मन सबही विधि पोच।
अति उनमत्त, निरंकुस, मैगल, चिंता-रहित, असोच।
महा मूढ़ अज्ञान-तिमिर-महँ मगन होत सुख मानि।
तेली के वृष लौं नित भरमत, भजत, न सारंगपानि।
गीध्‍यौ दुष्‍ट हेम तस्‍कर ज्‍यौं, अति आतुर मति-मंद।
लुवध्‍यौ स्‍वाद मनी-आमिष ज्‍यौं अवलोक्‍यौ नहिं फंद।
ज्‍वाला-प्रीति प्रगट सन्‍मुख हठि, ज्‍यौं पतंग तन जारयौ।
विषयअसक्त, अमित अघ-ब्‍याकुल, तबहूँ कछू न सँभारयौ।
ज्‍यौं कपि सीत-हतन-हित गुंजा सिमिटि होत लौलीन।
त्‍यौं सठ बृथा तजत नहिं कवहूँ, रहत विषय-आधीन।
सेमर-फूल सुरँग अति निरखत, मुदित होत खग-भूप।
परसत चोंच तूल उघरत मुख, परत दु:ख कैं कूप।
जहाँ गयौ तहँ भलौ न भावत, सब कोऊ सकुचानौ।
ज्ञान और बैराग भक्ति, प्रभु, इनमैं कहूँ न सानौ।
और कहाँ लौं कहौं एक मुख, या मन के कृत काज।
सूर पतित तुम पतित उधारन, गहौ विरद की लाज।।102।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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