माधौ जू के तन की सोभा -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग कल्यान


माधौ जू के तन की सोभा, कहत नहीं बनि आवै।
अँचवत सादर दोउ लोचन-पुट, मन नाहीं तृपितावै।।
सघन मेघ अति स्याम सुभग बपु, तडि़प बसन, बन माल।
सिर-सिषंड, बन-धातु बिराजत सुमन सुरंग प्रबाल।।
कछुक कुटिल कमनीय सघन अति गोरज-मंडित केस।
अंबुज रुचि पराग पर मानौ, राजत मधुप सुदेस।।
कुंडल लोल कपोल किरनि-गन, नैन कमल-दल, मीन।
अधर मधुर मुसुकानि मनोहर, करत मदन-मन हीन।।
प्रति प्रति अंग अनंग-कोटि-छबि, सुनि सखि परम प्रबीन।
सूर दृष्टि जहँ जहाँ परति, तहँ तहीं रहति ह्वै लीन।।1382।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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