मधुकर सुनौ ज्ञान कौ ज्ञान।
जौ पै है घट ही घट व्यापक, पाछै कहा बिनान।।
बसत सदा तुव घट हिरदै मैं, प्रगट संग जिहि खायौ।
सोइ सगुन सुख छाँडि तुमहिं भ्रम अंध कूप दिखरायौ।।
तिनहिं तत्त्व मिलि कारन बिनु ही, बदत जोग बहु मूढ़।
हरिपद परसि समर चितवत है, कोपि मरै आरूढ़।।
पूरक रेचक कुंभक कारन, करत महा दुख भारी।
इड़ा पिंगला गंगा जमुना, सुषमन निरपद नारी।।
हृदय कमल परगास गुप्त सो, सुख सु कमल परगासी।
सो सर ‘सूर’ बताबत औरै कैसे धौ तम नासी।। 181 ।।