मधुकर ये मन बिगरि परे।
समुझत नहीं ज्ञान गीता कौ, मृदु मुसुकानि अरे।।
हरि-पद-कमल बिसारत नाही, सीतल उर सँचरे।
जोग गंभीर कूप आँधे सौ, ताहि जु देखि डरे।।
बाँकी भौह बक्र दृग राँचे, तातै बक्र परे।
सूधे होत न स्वान पूँछ ज्यौ, पचि पचि बैद मरे।।
कमल नैन अनुराग भाग भरि, अमी रस गलित गरे।
'सूरदास' हम ऐसैहि रहिहैं, कान्ह वियोग भरे।।3730।।