मधुकर निरगुन ज्ञान तिहारौ।
तीच्छन तेज तपस्या यामै, का पै जात जु धारौ।।
हम अबला मति की सब भोरी, सहज गुपाल उपासी।
मन रमि रही मनोहर मूरति, को सुमिरै अविनासी।।
मन मैं मोहन रूप विराजत, हृदय मनोहर मूरति।
न्यारी होतिं न चित तै कबहूँ, छिन पल घरी महूरति।।
अंग अंग छवि बसी साँवरी, ख़ाली ठौर न कोऊ।
जौ कहुँ ठौर जोग कौ होतौ, लै धरती हम सोऊ।।
खेलत सौह करी नंदनंदन, हमसौ कछु न दुरायौ।
निसि दिन रह्यौ समीप हमारै, जोग मंत्र कहँ पायौ।।
रस की रीति साँवरौ बूझै, बिरह जोग नहिं जानै।
परमारथ की बात सुनै नहिं, छुवत प्रेम की खानै।।
उन पापी हमही कौ पठयौ, अनत नहीं सुख बाँटौ।
'सूरदास' प्रभु सीख बतावै, सहद लाइ कै चाँटौ।।3926।।