मधुकर तू काहै उठि धायौ।
और बैर कबहूँ नहि देख्यौ, हरि जासूसी आयौ।।
हमरै कहा देखिहै रे तू, अपनौ ही मन सोधौ।
स्याम स्याम तन सबै एक से, वै अक्रूर तुम ऊधौ।।
तू तौ बहुत पुहुप कौ लंपट, वै कुबिजा गृहवासी।
ह्याँ तौ उनकौ कछू न बिगरयौ, ‘सूर’ सदा हिय वासी।।3873।।