भोर भऐं निरखत हरि कौ मुख, प्रमुदित जसुमति, हरषित नंद।
दिनकर-किरन कमल ज्यौं बिकसत, निरखत उर उपजत आनंद।
बदन उधारि जगावति जननी, जागहु बलि गइ आनँद-कंद।
मनहुँ मथत सुर सिंधु, फेन फटि, दयो दिखाई पूरन चंद।
जाकौं ईस, सेष-ब्रह्मादिक, गावत नेति-नेति स्रुति छंद।
सोइ गोपाल ब्रज मैं सुनि सूरज, प्रगटे पूरन परमानंद।।204।।