ब्याकुल नंद सुनत यह बानी।
धरनी मुरछि परी अति व्याकुल, बिबस जसोदा रानी।।
व्याकुल गोप ग्वाल सब, व्याकुल ब्रज की नारि।
व्याकुल सखा स्याम बल के जे, व्याकुल तन न सँभारि।।
धरनी परत, उठत, पुनि धावत, इहिं अंतर नंद जागे।
धकधकात उर नैन स्रवत जल, सुत अँग परसन लागे।।
सिसकत सुनि जसुमति अतुराई, कहा महर भ्रम पायौ।
'सूर' नंद धरनी के आगै, यह भ्रम नहीं सुनायौ।।2936।।