बूझति जननि कहाँ हुती प्यारी।
किन तेरे भाल तिलक रचि कीनौ, किहिं कच गूँदि माँग सिर पारी।
खेलति रही नंद कै आँगन, जसुमति कही कुँवरिं ह्याँ आ री।
भेरौ नाउँ बूझि बाबा कौ, तेरौ बूझि दई हँसि गारी।
तिल चाँवरी गोद करि दीनी फरिया दई फारि नव सारी।
मो-तन चितै, चितै ढोटा-तन, कछु सविता सों गोद पसारी।
यह सुनि कै वृषभानु मुदित चित, हँसि-हँसि बूझत बात दुलारी।
सूर सुनत रस-सिंधु बढ़यौ अति, दंपति एकै बात बिचारी।।708।।