नैन घन घटत न एक घरी।
कबहुँ न मिटति सदा पावस व्रज, लागी रहत झरी।।
विरह इंद्र बरषत निसि बासर, इहिं अति अधिक करी।
ऊर्ध उसाँस समीर तेज जल, उर भू उमँगि भरी।।
बूड़त भुजा रोम द्रुम अंबर, अरु कुच उच्च थरी।
चलि न सकत पद रेह पंथ की, चंदन कीच खरी।।
सब रितु भई एक सी इहिं व्रज इहिं विधि उलटि धरी।
‘सूरदास’ प्रभु तुम्हरे बिछुरे, सब मरजाद टरी।।4114।।