नैननि हौं समुझाइ रही।
मानत नही कह्यौ काहू कौ, कठिन कुटेव गही।।
अनजानतही चितै बदनछवि, सनमुख सूल सही।
मगन होत बपु स्यामसिंधु मैं, कहूँ न थाह लही।।
तनु बिसरयौ, कुलकानि गँवाई, जग उपहास दही।
एते पर सन्तोष न मानत, मरजादा न गही।।
रोम रोम सुंदरता निरखत, आनंद उमँगि ढही।
'सूरदास' इन लोभिनि कै सँग, बन बन फिरति बही।।2351।।