नाहिनैं जगाइ सकति, सुनि सुबात सजनी।
अपनैं जान अजहुँ कान्ह मानत हैं रजनी।
जब-जब हौं निकट जाति, रहति लागि लोभा।
तन की गति बिसरि जाति, निरखत मुख-सोभा।
बचननि कौं बहुत करति, सोचति जिय ठाढ़ी।
नैननि न बिचारि परत देखत रुचि बाढ़ी।
इहिं बिधि बदनारबिंद, जसुमति जिय भावै।
सूरदास सुख की रासि, कापै कहि आवै।।201।।