नंद-नंदन-दरस जवहिं पैहौ।
एक द्वै तीनि तजि, चारि बानी मेटि, पाँच छह निदरि, सातै भुलहौ।
आठहू गाँठि परिहै, नवहु दस दिसा भूलिहौ, ग्यारहौ रुद्र जैसैं।।
बारहौ कला तैं तपनि तन तैं मिटति, तेरहौ रतन-मुख छबि न तैसैं।
निपुन चौदह, बरन पंद्रहौ सुभग अति, बरष सोडष सतरहौ न रैहै।।
जपन अट्ठारहौं भेद उनइस नहीं, बीसहू बिसै तैं सुखहि पैहै।
नैन भरि देखि जीवन सफल करि लेखि, ब्रजहिं मैं रहत तैं नहीं जाने।।
सूर-प्रभु चतुर, तुमहूँ महा चतुर हौ, जैसी तुम तैसे वोऊ सयाने।।1739।।