नंद-ग्राम कौ मारग बूझै है, हो कोउ दधि बेंचनहारी।
सुनहु न स्याम कठिन तन गारै, बिधु-बदनी अरु हाटक ढारी।।
अपया को सुत ताहि बिरंचै, जाहि बिरंचि सीस पर धारी।
कमल कुरंग चलत बरुना भख, राख्यौ निकट निषंग सँवारी।।
गति मराल-सावक ता पाछैं, जावक मुकुता चुनत बिसारी।
सूरदास-प्रभु कहत बनै नहिं, सुख संपति बृषभानु दुलारी।।1674।।