द्वार ठाढ़े हे द्विज बावन ।
चारौ वेद पढ़त मुख आगर, अति संकठ -सुर-गावन।
बानी सुन बलि पूछन लागे, इहाँ विप्र कत आवन ?
चरचित चंदन नील कलेवर , बरषत बूँदनि सावन।
चरन धोइ चरनोदक लीन्हौ, कह्यौ माँगु मनभावन।
तीनि पैड़ बसुधा हौ चाहौं, परनकुटी कौं छावन।
इतनौ कहा विप्र तुम माँग्यो, बहुत रतन देउँ गाँवन।
सूरदास प्रभु बोलि छले बलि, धन्यौ पीठि पद पावन।।13।।