द्रुम चढ़ि काहे न टेरौ कान्हा, गैयाँ गईं।
धाई जरतिं सबनि के आगैं, जे वृषभानु दईं।
घेरे घिरतिं न तुम-बिनु माधौ, मिलतिं न बेगि दई।
बिडरतिं फिरतिं सकल बन महियाँ, एकै एक भईं।
छाँड़ि खेत सब दौरि जात हैं, बोलौं ज्यौं सिखईं।
सूरदास प्रभु-प्रेम समुझि कै, मुरली सुनि आइ गईं।।612।।