देखि री हरि के चंचल नैन -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग गूजरी


देखि री हरि के चंचल नैन।
खंजन-मीन-मृगज-चपलाई, नहिं पटतर इक सैन।।
राजिवदल इंदीवर सतदल, कमल कुसेसय जाति।
निसि मुद्रित प्रातहिं वै बिकसित, ये बिकसित दिनराति।।
अरुन, स्वेत, सित झलक पलक प्रति, को बरनै उपमाइ।
मनु सरसति, गंगा, जमुना मिलि, आस्रम कीन्हौ आइ।।
अवलोकनि जलधार तेज अति, तहाँ न मन ठहराइ।
‘सूर’ स्याम-लोचन-अपार-छबि, उपमा सुनि सरमाइ।।1813।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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