देखत दै पिय मदन गुपालहिं।
हा हा हो पिय पाइ लगति हौं, जाइ सुनन दै बेनु-रसालहिं।।
लकुट लिए काहैं तन त्रासत, पति बिनु-मति बिरहिनि बेहालहिं।
अति आतुर आरूढ़-अधिक-छबि, ताहि कहा डर है जम कालहि।।
मन तौ पिय पहिलैंही पहुँच्यौ, प्रान तहीं चाहत चित चालहिं।
कहि धौं तू अपने स्वारथ कौं, रोकि कहा करिहै खल खालहिं।।
लेहि सम्हारि सु खेह देह की, को राखै इतने जंजालहिं।
सूर सकल सखियनि तै आगैं, अबहीं मूढ़ मिलति नंद-लालहि।।802।।