देखत पय पीवत बलराम।
तातौ लगत डारि तुम दीनौ, दावानल अँचवत नहिं ताम।
कबहूँ रहत मौन धरि जल मैं, कबहूँ फिरत बँधावत दाम।
कबहूँ अघासुर बदन समाने, कबहुँ अँध्यारै जात न धाम।
कबहूँ करत बसुधा सब त्रैपद, कबहूँ देहरी उलँधि न जाइ।
षट–दस-सहस गोपिका बिलसत, बृंदाबन रस-रास रमाइ।
यहै जानि अवतार धरत ब्रज, सुर-नर मुनि यह भेद न पाइ।
राजा छोरि बंदि तैं ल्याए, तिहूँ लोक मैं बिदित बड़ाइ।
जुग-जुग ब्रज अवतार लेत प्रभु, अखिल लोक ब्रह्मांड के नाथ।
येइ गोपी येइ ग्वाल यहै सुख यह लीला कहुँ तजत न साथ।
येई कान्ह यहै बृंदाबन यहै जमुना येइ कुंज-बिहार।
यहै बिहार करत निसि-बासर, येई है जन के प्रतिपार।
येई है श्रीपति भुव नायक, येई हैं करता संसार।
रोम-रोम-प्रति अंड कोटि रचे, मुख चूमति जसुमति कहि बार।
इन कंसहि के बार संहारयौ, धारयौ ब्रह्म कृष्न अवतार।
माखन खात चुराइ धरनि तैं, बहुत बार भए नंद-कुमार।
आदि अंत कोऊ नहिं जानत, हरता करता सब संसार।
सूरदास प्रभु बाल-अवस्था तरुन ब्रद्ध को करै निवार।।497।।