चलीं सबै तिय आधी रतियाँ, जहँ नव-कुज-बिहारी।
आनि हजूर भई कानन मैं, जहाँ स्याम सुखकारी।।
देखि सबै ब्रज-नारि स्याम-घन, चितयै बुद्धि सँवारी।
क्यौं आईं बृंदाबन-भीतर, तुम सब पिय की प्यारी।।
तुम कुल-बधू भवनहीं नोकी, रैनि कहां सब आई।
अपनैं अपनैं घर पति-जन सौं, कैसें निकसन पाईं।।
बेनु-सब्द स्रवननि मग ह्वै उर, पैठि हमहिं लै आयौ।
आस तुम्हारी जानि चपल चित, चंचल तुरत चलायौ।।
अपनौ पुरुष छांड़ि जो कामिनी अन्य पुरुष मन लावै।
अपजस होइ जगत जीवन भरि बहुरि अधम गति पावै।।
अजहुं जाहु सब घोष-तरुनि फिरि, तुम तौ भली न कीन्हीं।
रैनि बिपिन नहिं बास कीजियै, अबलनि कौं नहिं लोन्हीं।।
धर कैसैं फिरि जाहिं स्याम जू, तन इहई सब त्यागैं।
तुम तै कहौ कौन ह्यौ प्रीतम, जा संग मिलि अनुरागै।।
हम अनाथ, ब्रजनाथ-नाथ तुम चरन-सरन तकि आई।
निठुर बजन जनि कहौ पीय तुम जानत पीर पराई।।
दीन बचन सुनि स्रवन कृपानिधि, लोचन जल बरषाए।
धन्य धन्य काह कहि नंद-नंदन हरषित कंठ लगाए।।
हम कीन्हौ अपमान तुम्हारौ, तुम नहिं जिय कछु आन्यौ।
सरिता जैसैं सिंधु भजै ढरि, तैसैं तुम मोहिं जान्यौ।।