तुमहीं मोकौं ढीठ कियौ।
नैन सदा चरननि तर राखे, मुख देखत न बियौ।।
प्रभु मेरी तुम सकुच मिटाई, जोइ-सोइ माँगत पेलि।
माँगौं चरन-सरन बृंदाबन, जहाँ करत नित केलि।।
यह बानी जु भुजंग स्रवन बिनु, सुनत बहुत सरमाऊँ।
श्री वृषभानु-सुता-पति सौं हित, सूर जगत भरमाऊँ।।1177।।