मच्छ कच्छ बाराह, बहुरि नरसिंह रूप धरि।
वामन, बहुरौ परसुराम, पुनि राम रूप करि।
बासुदेव सोई भयौ, बुद्ध भयौ पुनि सोइ।
सोई कल्की होइहै, और न द्वितिया कोई
ये दस हरि-अवतार, कहे पुनि और चतुरदास।
भक्तबछल भगवान, धरे तन भक्तमि कैं बस।
अज, अबिनासी, अमर प्रभु, जनमैं मरै न सोइ।
नट वत करत कला सकल, वूभै बिरला काइ।
सनकादिक, पुनि ब्यास, बहुरि भए हंस रूप हरिं।
पुनि नारायन ऋषभदेव, नारद धनवंतरि।
दत्तात्रेऽरू पृथु बहुरि, जज्ञपुरुष-वपु घार।
कपिल, मनू, हयप्रीव पुनि, कौन्हौ ध्रुव अवतार।
भूभिरेनु काउ गनै, नछत्रनि गनि समुझावै।
कह्यौ चहै अवतार, अंत सोऊ नहिं पावै।
सूर कह्यौ क्यौं कहि सकै, जन्म-कर्म-अवतार।
कहे कछुक गुरु-कृपा तैं श्रीभागवतऽनुसार।।36।।