जसुमति धौं देखि आनि, आगैं, ह्वै लै पिछानि,
बहियाँ गहि ल्याई कुँवर और कौ कि तेरौ?
अब लौं मैं करी कानि, सही दूध-दही हानि,
अजहूँ जिय जानि मानि, कान्ह है अनेरौ।
दीपक मैं धरयौ बारि, देखत भुज भए चारि,
हारी हौं धरति करति दिन-दिन कौ भेरौ।
देखियत नहिं भवन माँझ, जैसोइ तन तैसि सांझि,
छल सौ कछु करत फिरत महरि कौ जिठेरौ।
गोरस तन छींटि रही, सोभा नहिं जाति कही,
मानो जल-जमुन बिंब उड़गन पथ केरौ।
उरहन दिन देउँ काहि, कहैं तू इतौ रिसाइ,
नाहीं व्रज-बास, सास, ऐसी बिधि मेरौ।
गोपी निरखति सुमार, जसुमति कौ है कुमार,
भूलीं भ्रम रूप मनी आन कोउ हेरौ।
मन-मन बिहँसत गोपाल, भक्त-पाल, दुष्ट-साल,
जानै को सूरदास चरित कान्ह केरौ!।।276।।