जसुदा देखि सुत की ओर।
बाल बैस रसाल पर, रिस इती कहा कठोर।
बार बार निहारि तुव तन नमित-मुख दधि चोर।
तरनि किरनहिं परसि मानौ, कुमुद सकुचत भोर।
त्रास तैं अति चपल गोलक, सजल सोभित छोर।
मीन मानौ बेधि बंसी, करत जल झकझोर।
देत छबि अति गिरत उर पर अंबु-कन के जोर।
ललित हिय जनु मुक्त–माला, गिरति टूटैं डोर।
नंद – नंदन जगत – बंदन करत आंसू कोर।
दास सूरज मोहिं सुख-हित निरखि नंदकिसोर।।358।।