दीठि लगावतिं कान्ह कौ, जरैं बरैं वे आँखि।
धींगरि धिग चाँचरि करैं, मोहिं बुलावतिं साखि।।
धींग तुम्हारौं पूत, धींगरी हमकौं कीन्हो।
सुत कौं हटकतिं नाहिं, कोटि इक गारी दीन्ही।।
महतारी सुत दोउ बने, वै मग रोकत जाइ।
इनहिं कहन दुख आइयै, (ये) सबकौं उठतिं रिसाइ।।
कहा करौं तुम बात, कहूँ की कहूँ लगावति।
तरुनिनि यहै सुहाति, मोहिं कैसैं यह भावति।।
बहुत उरहनौ मोहिं दियौ, अब ऐसौ जिनि देहु।
तुम तरुनी हरि तरुन नहिं, मन अपनैं गुनि लेहु।।
निरउत्तर भई ग्वालि, बहुरि कछु कहत न आयौ।
मन उपजी कछु लाज, गुप्त हरि सौं चित लायौ।।
लीला ललित गुपाल की, कहत सुनत सुखदाइ।
दान चरित-सुख देखि कै, सूरदास बलि जाइ।।1491।।