घुटुरुनि चलत स्याम मनि-आँगन, मातु-पिता दोउ देखत री।
कबहुंक किलकित तात-मुख हेरत, कबहूँ मात-मुख देखत री।
लटकन लटकत ललित भाल पर, काजर-बिंदु भ्रुव-ऊपर री।
यह सोभा नैननि भरि देखत, नहिं उपमा तिहुँ भू पर री।
कबहुँक दौरि घुटुरुवनि लपकत, गिरत, उठत पुनि धावै री।
इततैं नंद बुलाइ लेत हैं उततैं जननि बुलावै री।
दंपति होड़ करत आपस मैं, स्याम खिलौना कीन्हौ री।
सूरदास प्रभु ब्रह्म सनातन, सुत हित करि दोउ लीन्हौ री।।98।।