ग्‍वालि उरहनौ भोरहिं ल्‍याई 3 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल
यमलार्जुन उद्धार की दूसरी अवस्था



सबहिन गोधन सौंह दिवाई। चितै रहै मुख कुँवर कन्हाई।
कब तुमकौं मैं बोलि बुलाई। केहि कारन तुम धाई आई।
यह सुनि बहुरि चलीं बिरुभाई। कहा करौ बलि जाउँ कन्हाई।
मूरख कौं कोउ कहा सिखावै। याकी मति कछु कहत आवै।
यहै कहति अपने घर आई। मानै नहीं कितौ समुझाई।
मथति जसोदा दही मथानी। तबहि कान्ह ऐसी मति ठानी।
भक्त-वछल हरि अंतरजामी। सुत कुबेर के ये दोउ नामी।
जो जिहिं ढँग तिहिं ढँग सब लाए। जमला–अर्जुन पै प्रभु आए।
बृच्छ जीव उखल लै अटक्यौ। आगैं नि‍कसि नैंकु गहि भटक्यौ।
अरात दोउ बृच्छ गिरे धर। अति आघात भयौ ब्रज-भीतर।
भए चकित सब ब्रज के बासी। इहिं अंतर दोउ कुँवर प्रकासी।
संख चक्र कर सारँग धारी। भगत–हेत प्रगटे बनवारी।
देखि दरस मन हरष बढ़ायौ। तुमहिं बिना प्रभु कौन सहायौ।
धनि ब्रज कृष्न जहाँ बपुधारी। धनि जसुमति ब्रह्महिं अवतारी।
धन्य नंद, धनि-धनि गोपाला। धन्य-धन्य गोकुल को बाला।
धन्य गाइ, धनि द्रुम बन चारन। धनि जमुना हरि करत बिहारन।
धन्य उरहनौ प्रातहिं ल्याई। धनि माखन चोरत जदुराई।
धनि सो जन ऊखल गढि़ ल्यायौ। धन्य दाम भुज कृष्न बँधायौ।
गदगद कंठ वचन मुख भारी। सरन राखि लै गर्व-प्रहारी।
बार-बार चरननि परे धाई। कृपा करी भक्तनि सुखदाई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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