खेलत मोहन फाग भरे रँग 3 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल


हौ हूँ संग तिहारै खेली। जानति हौ हूँ जान सहेली।।
अबही कीरति महरि पठाई। राधा इकली खेलन आई।।
अब इक बात कहौ हौ जी की। हौ जानति हौ छल हरि पी की।।
सघन बिपिन ऐसै कहूँ पावहु। सब मिलि एक संग जनि धावहु।।
सुनत सोर कत रहिहै नेरै। कोटि करौ पावहु नहिं हेरै।।
द्वै द्वै न्यारी न्यारी डोलहु। तनक मूँदि कर मुख जनि बोलहु।।
जाइ अचानकही गहि ल्यावहु। सखी एक ज्यौ ज्यौ करि पावहु।।
राधा कौ भुज गहि कै लीन्ही। ऐसै सब कौ द्वै द्वै कीन्ही।।
मौन किये प्रबेस कियौ बन मैं। हरि कौ रूप राखि निज मन मैं।।
और सखी खोजति सब कुंजनि। राधा हरि बिहरत सुख पूजनि।।
राधा आवति देखि अकेली। तबहिं बहुरि सब बैठी सकेली।।
तब बूझति वृषभानुदुलारी। सखी संग की कहाँ बिसारी।।
अति गह्वर मैं जाइ परी हम। सूर्य न सूझत भयौ निसा तम।।
ता ठाहर तै हौ भई न्यारी। फिरि आई डरपी हिय भारी।।
पुहुप वाटिका हौ फिरि आई। मुकुट दीठि तहँ हौं इत धाई।।
ता ठाहर जौ ठाढ़े पावहिं। चलौ जाइं धाई गहि ल्यावहिं।।
नारी बात सुनत ही धाई। घेरि लिये कोकिल सुर गाईं।।
जाहु कहाँऽब अकेले पाए। सकल सुगंध सीस तै नाए।।
एक रूपमाधुरी निहारहि। एक कटाच्छ नैन सर मारहि।।
एक सुमन लै ग्रंथति माला। सोभित सुंदर हृदय बिसाला।।
खेलत आए पुलिन सुहाए। बैठे तहँ मंडली बनाए।।
मोहन नव ससि मव्य राविजै। देखि 'सूर' कोटिक छबि छाजै।।2892।।

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