कूबरी नारि सुदरी कीन्ही।
भाव मैं बास बिनु भाव नहिं पाइयै, जानि हिरदै हेत मानि लीन्ही।।
ग्रीव कर परसि पग पीठि तापर दियौ, उरबसी रूप पटतरहिं दीन्ही।
चित वाकै इहै स्याम पति मिलै मोहिं, तुरत सोई भइ नहिं जाति चीन्ही।।
ताहि अपनी करी चले आगै हरी, गए जहँ कुबलया मल्ल द्वारै।
बीच माली मिल्यौ, दौरि चरननि परयौ, पुहुप माला स्याम कंठ धारे।।
कुसल प्रस्नहि कहे, तुरत मनकाम लहि, भक्तवत्सल नाम भक्त गावै।
ताहि सुख दै चलै, पौरिही ह्वै खरे, 'सूर' गजपाल सौ कहि सुनावै।।3051।।