काहे कौं परतिय हरि आनी ?
यह सीता जो जनक की कन्या, रमा आपु रघुनंदन-रानी।
रावन मुग्ध, करम के हीने, जनक सुता तैं तिय करि मानी!
जिनकैं क्रोध पुहुमि-नभ पलटै, सूखै सकल सिंधु कर पानी!
मूरख सुख निद्रा नहिं आवै, लैहैं लंक बीस भुज भानी।
सूर न मिटै भाल की रेखा, अल्प मृत्यु तुव आइ तुलानी॥116॥