कान्ह जगाइ गुपाल मुदित -सूरदास

सूरसागर

1.परिशिष्ट

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राग कान्हरा





कान्ह जगाइ गुपाल मुदित मन हठ री बैठे गिरिवरधारी।
हरधर संग सुबल श्रीदामा गोप ग्वाल सब गए सिंगारी।।
देखन कौ उमहै सुर नर मुनि राउर माँझ भीर भई भारी।
जैजैकार होत चहुँ दिसि तै सुरपति करत कुसुम बरषा री।।
कंचन रतन जटित हीरानग़ बिसकर्मा रचि सुविधि सँवारी।
परम बिचित्र बनी अति सुंदर जगमगाति कुहु तिमिर बिदारी।।
नंद भवन भरि धरे बिबिध पक अगनित मेवा गरी छुहारी।
टेरि टेरि जब देत सबनि कौ सिव ब्रह्मादिक गोद पसारी।
करति आरती मातु जसोदा मंगल गावति सब ब्रजनारी।
‘सूर’ रसिक गिरधर मुख बिलसत बरष बरष प्रति परब दिवारी।। 43 ।।

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