कहा इन नैननि कौ अपराध।
रसना रटत सुनत जस स्रवननि, इतनौ अगम अगाध।।
भोजन कहै भूख क्यौ भाजति, बिनु खाऐ कह स्वाद।
इकटक रहत, छुटति नहिं कबहूँ, हरि देखन की साध।।
ये दृग दुखी बिना वह मूरति, कहौ कहा अब कीजै।
एक बेर ब्रज आनि कृपा करि, ‘सूर’ सुदरसन दीजै।। 3250।।