बिलोकौ राधा नागरि प्यारी2 -सूरदास

सूरसागर

2.परिशिष्ट

भ्रमर-गीत

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राग काफी




कबु कठ राजति कटस्त्री अरु सृंग अभरन काँति।
मनहुँ कनक मूरति गंगा तट निकट दिपति दिप-पाँति।।
चौकी चारु लाल नग उद्दित यह उपमा दियौ हेरि।
मानौ कंज अबनि तै उपज्यौ इद्र बधुनि लियौ घेरि।।
पहुँची पानि बाहँ बाजूबँद फबत फूँदन रूर।
मनहुँ काम-बट-बरुह रहे गहि झूलत बाल मयूर।।
चोली चारु छीट की छाजति उपमा देत अटोट।
मनहुँ महेस मानि मनसिज मय बैठ्यौ बगछल ओट।।
सुदर उदर रोम की राजी नाभि बसत रति रौन।
मानहुँ माँगि सूधि करि बैठ्यौ द्वै महँ मारहुँ कौन।।
नीबी बनी बोरि केसरी सौ कसी बिनोदे बाम।
मनहुँ सीस सदबर्ग बाँधि कै बैठ्यौ सदन चढि काम।।
छीन लंक नीबी किंकिनि धुनि राजति अतिहिं प्रबीन।
जुग नितब मनु तुंब परस्पर समर ठहत रनबीन।।
जंघ कदलि बिपरीत रची मनु लहँगा ललित सुहाइ।
मनहुँ मदन गडदार पेलि कै उमड़ि चल्यौ गजराइ।।
अंबुज चरन पावटौ फुदौ इहिं उपमा कौ ठौर।
मधुर नाद गुंजार करत मनु उड़ि उड़ि बैठत भौर।।
कहै सहचरी बड़ दुख ल्याई प्रभु तुम्हरै हित लागि।
अब रस परसि बिलसि बृंदावन दंभ सकुच डर त्यागि।।
जोरी बनी सुदेस ‘सूर’ प्रभु बढ्यौ रीति रस रग।
ठकुराइनि मेरी श्रीराधा ठाकुर नवल त्रिभग।। 64 ।।

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