कन्हैया हेरी दै।
सुभग साँवरे गात की मैं, सोभा कहत लजाउँ।
मोर-पंख सिर-मुकुट की मुख-मटकनि की बलि जाउँ।
कुंडल लोल कपोलनि झाईं बिहंसनि चितहिं चुरावै।
दसन-दमक, मोतिनि लर ग्रीवा, सोभा कहत न आवै।
उर पर पदिक कुसुम बनमाला, अंगद खरे बिराजै।
चित्रित बाहँ पहुँचिया पहुँचे, हाथ मुरलिया छाजै।
कटि पट पीत, मेखला मुखरित, पाइनि नूपुर सोहै।
आस-पास बर ग्वाल-मंडली, देखत त्रिभुवन मोहै।
सब मिलि आनँद प्रेम बढ़ावत, गावत गुन गोपाल।
यह सुख देखत स्याम-संग कौ, सूरदास सब ग्वाल।।451।।