कछु रिस कछु नागरि जिय धरकी।
यह तो जोवन रूप गहीली, संका मानति हरि की।।
यह विपरीत होन अब चाहत, ब्रज मै आइ समानी।
यह तौ गुननि उजागरि नागरि, वै तौ चतुर बिनानी।।
कर दर्पन प्रतिबिंब निहारति, चकित भई सुकुमारी।
'सूर' स्याम निरखत गवाच्छ मग, नागरि भोरी भारी।।2200।।