औसर हारयौ रे, तैं हारयौ।
मानुष-जनम पाइ नर बौरे, हरि को भजन बिसारयौ।
रुधिर बूँद तैं साजि कियो तन सुंदर रूप सँवारयौ।
जठर अगिनि अंतर उर दाहत, जिहि दस मास उबारयौ।
जब तैं जनम-लियौ जग भीतर, तब तैं तिहिं प्रतिपारयो।
अंध, अचेत, मूढ़मति, बौरे, सो प्रभु क्यों न सँभारयौ ?
पहिरि पटंबर, करि आडंबर, यह तन झूठ सिंगारयौ।
काम-क्रोध-मद-लोभ, तिंया-रति, बहु बिधि काज बिगारयौ।
मरन भूलि, जीवन थिर जान्यौ, बहु उद्यम जिय धारयौ।
सुत दारा कौ मोह अँचै विष, हरि-अमृत-फल डारयौ।
झूठ-साँच करि माया जोरी, रचि-पचि भवन सँवारयौ।
काल-अवधि पूरन भई जा दिन, तनहूँ त्यागि सिधारयौ।
प्रेत-प्रेत तेरौ नाम परयौ, जब, जेंबरि बाँधि निकारयौ।
जिहिं सुत कैं हित बिमुख गौबिद तैं, प्रथम तिहीं सुख जारयौ।
भाई-बंधु कुटुंब-सहोदर, तब मिलि यहै बिचारयौ।
जैसे कर्म, लहो फल तैसे, तिनुका तोरि उचारयौ।
सतगुरु कौ उपदेश हृदय धरि, जिन भ्रम सकल निवारयौ।
हरि भजि बिलँब छाँड़ि सूरज सठ, ऊँचे टेरि पुकारयौ।।336।।