और न काहुहि जन की पौर -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग रामकली



            
और न काहुहि जन की पीर।
जब जब दीन दुखी भयौ, तब तब कृपा करी बलबीर।
गज बल-हीन बिलोकि दसौ दिसि, तब हरि-सरन परयौ।
करुनासिंधु, दयाल, दरस दै, सब संताप हरयौ।
गोपी-ग्वाला-गाय-गोसुत-हित सात दिवस गिरि लीन्‍ह्यौ।
मागध हत्‍यौ, मुक्त नृप कीन्‍हें, मृतक बिप्र सुत दीन्‍ह्यौ।
श्री नृसिंह बपु धरयौ असुर हति, भक्त-वचन प्रतिपारयौ।
सुमिरत नाम, द्रुपद-तनया कौ पट अनेक बिस्‍तारयौ।
मुनि मद मेटि दास-व्रत राख्‍यौ, अंबरीष-हितकारी।
लाखा-ग्रह तै, सत्रु सैन तै पांडव-बिपति निवारी।
बरुन-पास व्रजपति मुकरायौ दावानल-दुख टारयौ।
गृह आने वसुदेव-देवकी, कंस महा खल मारयौ।
सो श्रीपति जुग जुग सुमिरन-बस, वेद बिमल जस गावै।
असरन-सरन सूर जाँचत है, को अब सुरति करावै?।।17।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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