ऐसी बिधि नंदलाल, कहत सुने माई।
देखे जौ नैन, रोम रोम, प्रति सुहाई।।
बिधना द्वै नैन रचे, अंग ठानि ठान्यौ।
लोचन नहिं बहुत दियौ, जानि कै भुलान्यौ।।
चतुरता प्रवीनता, विधाता का जानी।
अब ऐसे लगत हमहिं, वातैं न अयानौ।।
त्रिभुवनपति तरुन कान्ह, नटवरबपु काछे।
हमकौ द्वै नैन दिये, तेऊ नहिं आछे।।
ऐसौ विधि कौ विवेक, कहौ कहा बाकौ।
‘सूर’ कबहुँ पाऊँ जौ, अपनै कर ताकौ।।1836।।