उत वृषभानुसुता उठी, वह भाव बिचारे।
रैनि बिहानी कठिन सौ, मनमथ बल भारे।।
ग्रीव मुतिसरी तोरि कै, अँचरा सौ बाँध्यौ।
यहै बहानौ करि लियो, हरि मन अनुराध्यौ।।
जननि उठी अकुलाइ कै, क्यौ राधा जागी।
कहा चली उठि भोरही, सोवे न सभागी।।
अब जननी सोऊँ नहीं, रबिकिरनि प्रकासी।
तुहुँ उठति काहै नहीं, जागे ब्रजबासी।।
आपु उठी आँगन गई, फिरि घरही आई।
कब धौ मिलिहौ स्याम कौ, पल रयौ न जाई।।
फिरि फिरि अजिरहि भबनही, तलबेली लागी।
'सूर' स्याम के रस भरी, राधा अनुरागी।।1966।।