इहि अंतर वृषभासुर आयौ -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सोरठ


इहि अंतर वृषभासुर आयौ।
देखे नंद-सुवन बालक सँग, यहै धात उहिं पायौ।।
गयौ समाइ धेनु-पति ह्वै कै, मन मैं दाउं बिचारै।
हरि तबहिं लखि लियौ दुष्‍ट कौं, डोलत धेनु बिडारै।।
गइयां बिझुकि चलीं जित तित कौं, रूखा जहाँ तहं घेरैं।
वृषभ शृंग सौं धरनि उकासत, बल-मोहन-तन हेरै।।
आवत चल्‍यौ स्‍याम कै सन्‍मुख, निदरि आपु अगुसारी।
कूदि परयौ हरि उपर आयौ, कियौ जुद्ध अति भारी।।
धाइ परे सब सखा हाँक दै, वृषभ स्‍याम कौं मारयौ।
पाउँ पकरि भुज सौं गहि फेरयौ, भूतल माहिं पछारयौ।।
परयौ असुर पर्बत समान ह्वै, चकित भए सब ग्वाल।
बृषभ जानि कै हम सब धाए, यह तो कोउ बिकराल।।
देखि चरित्र जसोमति सुत के, मन मैं करत बिचार।
सूरदास-प्रभु असुर-निकंदन, सं‍तनि-प्रान-अधार।।1387।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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