आज के द्यौस कौ सखी अति नहीं जौ लाख लोचन अंग अंग होते।
पूरती साध मेरे हृदय माँझ की, देखती सबै छबि स्याम को ते।।
चित लोभी नैनद्वार अतिहीं सुछम, कहाँ वह सिंधुछवि है अगाधा।
रोम जितने अंग, नैन होते संग, रूप लेती निदरि कहति राधा।।
स्रवन सुनि सुनि दहै, रूप कैसै लहै, नैन कछु गहै, रसना न ताकैं।
देखि कोउ रहै, कोउ सुनि रहै, जीभ बिनु, सो कहै कहा नहि नैन जाकै।।
अग बिनु है सबै, नहीं एकौ फबै, सुनत देखत जबै कहन लोरै।
कहै रसना, गुनत स्रवन, देखत नयन, ‘सूर’ सब भेद गुनि मनहि तोरै।।1857।।