अविगत-गति कछु समुझि न परै -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग भैरो
कच-देवयानी-कथा


 
अविगत-गति कछु समुझि न परै। जो कछु प्रभु चाहै सो करै।
जिव कौ कियौ कछू नहिं होइ। कोटि उपाव करौ किन कोइ।
एक बार सुरपति-मन आई। सुक्र असुर कौं लेत जिवाई।
मम गुरुहू विद्या पढि़ आवै। मृतक सुरनि कौं फेरि जिवावै।
निज गुरु सौं भाष्यौ तिन जाइ। सुक्र असुर कौं लेत जिवाइ।
तुमहूँ यह विद्या पढ़ि आवौ। मृतक सुरनि कौं तुमहुँ जिवावौ।
तब तिन कच कौं दियौ पठाइ। कह्यौ सुक्र कौं तिन सिर नाइ।
मैं आयौ तुम पै रिषिराइ। तुम मोहिं विद्या देहु पढ़ाइ।
सुक्र कह्यौ तासौं या भाइ। दैहौं विद्या तोहिं देहु पढ़ा।
विद्या पढ़ै करै गुरु-सेव। सब विधि सोधै ताकी टेव।
सुक्र-सुता देवयानी नाम। सब गुन-पूनँ रूप अभिराम।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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