अब हरि कौन के रस गिधे।
सकत नहि निरवारि ऊधौ, बदरी ज्यौ ससि विधे।।
बार तिहिं बन बन धुलाई, तजि सकत कुलकानि।
अध करि अब छाँड़ि गए हम, बिनु लकुट बिनु पानि।।
जतन गुन निरगुन भए सब, मरन की अभिलाष।
बिना चरनसरोज देखै, जरै देह जु राख।।
परी फद वियोग सूनै, तजति कुमुद निवास।
बिना पुष्कर मीन कैसै, जियै ‘सूरजदास’।।3836।।