अब मोहिं निसि देखत डर लागै।
बार बार अकुलाइ देह तै, निकसि निकसि मन भागै।।
प्राची दिसा देखि पूरन ससि ह्वै आयौ तन तातौ।
मानौ मदन बदन बिरहिनि पै, करि लीन्हौ रिस रातौ।।
भृकुटी कुटिल कलक चाप मनु, अति रिस सौं सर साँध्यौ।
चहुँधा किरनि पसारि फाँसि लै, चाहत बिरहिनि बाँध्यौ।।
सुनि सठ सोइ प्रानपति मेरौ, जाकौ जस जग जानै।
‘सूर’ सिंधु बूड़त तै राख्यौ, ताहू कृतहिं न मानै।। 4269।।