हरि सौ बूझति रुकमिनि इनमै को ब्रिषभानु किसोरी।
वारक हमैं दिखावहु अपने, बालापन की जोरी।।
जाकौ हेत निरंतर लीन्हे, डोलत व्रज की खोरी।
अति आतुर ह्वै गाइ दुहावन, जाते पर घर चोरी।।
रचते सेज स्वकर सुमननि की, नव पल्लव पुट तोरी।
बिन देखै ताके मन तरसै, छिन बीतै जुग कोरी।।
‘सूर’ सोच सुख करि भरि लोचन, अंतर प्रीति न थोरी।
सिथिल गात मुख वचन फुरत नहिं, ह्वै जु गई मति भोरी।। 4285।।