राज रवनि गावतिं हरि कौ जस ।
रुदन करत सुत कौ समुझावति, राखतिं स्रवननि प्याइ सुधारस ।।
तुम जनि जिय डरपहु रे बालक, कृपासिंधु कै सरन सदा बस ।
तजि जिय सोच तात अपने कौ, करि प्रतीति निरभय ह्वै कै हँस ।।
जिन प्रभु जनक सुता प्रन राख्यौ, अरु रावन के सीस सकल नस ।
सोई ‘सूर’ सहाइ हमारै, मोचन गोप गयंद महा पस ।। 4211 ।।