(ऊधौ) नैकु सुजात हरि कौ स्रवननि सुन।
कंकन काँच, कपूर करर सम, सुख दुख, गुन औगुन।।
नाम उनहि कौ सुनत गेह तजि, जाइ बसत नर कानन।
परमहंस बहुतक देखियत है, आवत भिच्छा माँगन।।
बालि, कपिन कौ राउ, सँहारयौ, लोक-लाज-डर डारी।
सूपनखा की नाक निपाती, तिय बस भए मुरारी।।
बलि, सो बाँधि पताल पठायौ, कीन्है जग्य बनाइ।
‘सूर’ प्रीति जानी नइ हरि की, कथा तजी नहिं जाइ।।3515।।